Question
Download Solution PDFयाज्ञवल्क्य-जनकयोः संवादोऽस्ति-
Answer (Detailed Solution Below)
Detailed Solution
Download Solution PDFप्रश्न का अनुवाद - याज्ञवल्क्य और जनक के बीच एक संवाद है -
स्पष्टीकरण - याज्ञवल्क्य और जनक के बीच एक संवाद का सन्दर्भ बृहदारण्यक उपनिषद (४.१) में मिलता है।
Important Points
बृहदारण्यक उपनिषद में उद्धृत यह संवाद प्रारम्भ होता है -
- एक दिन विदेह देश के राजा जनक अपनी सभा में विराजमान थे। उसी समय सभा में ऋषि याज्ञवल्क्य पधारे। सभी सभासद् उठकर ऋषि को नमन किया । राजा ने उनका आतिथ्य किया। आतिथ्य के पश्चात् राजा ने उनके आने का कारण पूछा, "गुरुकुल में सब ठीक तो है। किसी के कारण कोई परेशानी तो नहीं है । ब्रह्मचारियों को भोजन तो मिलता है, गौएँ दूध देती होंगी ।"कुशल-क्षेम के बाद राजा ने ऋषि से कहा- आप हमें ब्रह्मा के बारे में कुछ बताएँ ।
- ऋषि ने उनकी योग्यता जानने के लिए कहा-आपने अब तक ब्रह्मा के बारे में जो कुछ भी सुना है या जाना है, वो सब बताएँ, जिससे मैं आपको उसके आगे बता सकूँ । राजा ने कहा---जित्वा शैलिनि नामक एक बहुत बडे विद्वान्, बहुश्रुत, बहुपठित आए थे । उन्होंने मुझे उपदेश दिया- "वाणी ही श्रेष्ठ है, वाणी ब्रह्मा है, उसी की उपासना करो ।"
- ऋषि ने कहा-"जो व्यक्ति अपने माता-पिता, आचार्य से सुशिक्षित होगा, वही इतनी ऊँची बात कह सकता है । निश्चय ही एक अर्थ में वाणी को ब्रह्मा माना उचित है । यदि मनुष्य को वाणी ही न मिले तो ऐसा मूक प्राणी संसार में क्या कर सकता है । किन्तु क्या उस विद्वान् ने आपको वाणी का स्थान या प्रतिष्ठा बताई थी ?"
- राजा जनक ने कहा- "मुझे उसने यह तो नहीं बताई थी ।"
- तब महर्षि बोले- "तब तो वाणी इस महत् ब्रह्म का एक भाग-मात्र ही है ।"राजा जनक ऋषि से वाणी का स्थान जानना चाहा ।
- ऋषि ने उत्तर दिया- "जहाँ से वाक् की उत्पत्ति होती है, वही वाणी का स्थान है, तथा आकाश ही उसकी प्रतिष्ठा है ।"क्योंकि यदि आकाश न हो तो एक व्यक्ति से उच्चरित वाणी दूसरे को सुनाई नहीं देगी । इसी महत्ता के कारण हमारे ऋषियों ने उसे "शब्दब्रह्म" कहा है । किन्तु वाणी की उपासना प्रज्ञापूर्वक करनी चाहिए, अर्थात् बुद्धि से विचार करके ही वाणी बोलनी चाहिए ।जब ऋषि ने बुद्धि (प्रज्ञा) की बात कही, तब राजा जनक ने उस प्रज्ञा के बारे में जानना चाहा ।
- इस पर महर्षि ने वाणी और प्रज्ञा को अभिन्न बताया- "वाणी से हम ऋग्वेदादि शास्त्रों का अध्ययन , वाचन करते हैं । संसार के सभी लौकिक व्यवहारों का ज्ञान भी वाणी से होता है । इसीलिए इसे बडा (ब्रह्म) कहा गया है । परमात्मा का स्तवन, कीर्त्तन भी तो वाणी से ही किया जाता है। यदि वाणी के इस महत्त्व को जानकर उसका सम्यक् सेवन (उपयोग) किया जाए तो वाणी भी हमें कभी निराश नहीं करती है ।याज्ञवल्क्य से वाणी के इस माहात्म्य को सुनकर राजा जनक बहुत प्रसन्न हुए और गुरुकुल के ब्रह्मचारियों के लिए वृषभ सहित एक हजार दूध देने वाली गौएँ प्रदान कीं ।
इसप्रकार शास्त्रार्थ का संवाद याज्ञ्यवल्क्य और जनक में हुआ।
अतः स्पष्ट है कि , यह संवाद बृहदारण्यक उपनिषद (४.१) उद्धृत है।
Last updated on Jul 12, 2025
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